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पर्दा बेपर्दा

योगेन्द्र दत्त शर्मा

प्रकाशक : अमरसत्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8285
आईएसबीएन :9788188466610

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योगेन्द्र दत्त शर्मा की दस चुनी हुई कहानियों का संग्रह...

Parda Beparda - A Hindi Book by Yogendra Dutt Sharma

यह कैसा समय है- अजीब-सा! चेहराविहीन! व्यक्तित्वहीन! न तो पूरी तरह खलनायक लगता है, न पूरी तरह विदूषक! दोनों का विचित्र-सा घालमेल! नायक का को कहीं कोई अता-पता नहीं! कोई संभावनाशील नायक उभरता दिखाई भी देता है, तो अचानक खलनायक में बदलने लगता है या फिर विदूषक में परिणत हो जाता है। और फिर दृश्य ऐसा गड्डमड्ड होता है कि सिर चकराने लगता है। है न अजीब स्थिति! हम कहाँ आ गए हैं! कहाँ जा रहे हैं!

इक्कीसवीं सदी शुरु हो चुकी है। समय ने देखते-देखते कैसी करवट बदली है। हम इंटरनेट, ई-मेल, अंतरिक्ष पर्यटन के युग में प्रवेश कर चुके हैं। प्रगति और विकास के इस सोपान पर आकर मानव-सभ्यता दर्पोद्धत होकर अट्टहास कर रही है - वंचित, उपेक्षित, अभागे लोगों की गर्दन पर सवार होकर। यह कैसी प्रगति है! यह कैसा विकास है! आज भी दुनिया की आधी आबादी भुखमरी, बेचारगी और बेरोजगार का शिकार है। यह भी इसी सभ्यता, इसी समाज का अंग है। सभ्य, विकसित समाज इसे देखकर भी अनदेखा कर रहा है। ये वंचित, शोषित लोग इतने निरीह और बेबस हैं कि अपने दुःख और तकलीफों को बयान भी नहीं कर पाते।

कहाँ है सभ्यता? किधर है प्रगति? कैसा है विकास? इतिहास की लम्बी यात्रा करने के बाद भी हम मानसिक रूप से शायद अब भी वहीं के वहीं हैं जहाँ से शुरु हुई थी हमारी यात्रा। सच पूछें, तो हम आज भी किसी आदिम अवस्था में ही जी रहे हैं। क्या सभ्यता का कोई विकास-क्रम हमारी बर्बरता को मिटा पाया है?

विश्व-मंच पर ही नहीं, देशीय परिवेश में भी सभ्य, सुसंस्कृत और विकसित होने का हमारा दंभ निरर्थक और खोखला ही सिद्ध होता है।

योगेन्द्र शर्मा की ये कहानियाँ बताती हैं कि कैसे हम आज अनेक विपरीत ध्रुवों पर एक साथ जी रहे हैं। कहना जरूरी है कि पर्दा-बेपर्दा की ये कहानियाँ फैशनपरस्त कहानियों की दुनिया से अलग मानवीय संवेदनाओं को जगाने वाली ऐसी सार्थक रचनाएँ हैं जो लंबे समय तक अपनी प्रासंगिकता बनाये रखेंगी।


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